14.5.07

जिन्दगी छिप गयी

जिन्दगी तू छिप गई है कहाँ
लिख रहा हूँ मैं एक नई दास्तां
मंजिलों के नए मैं मकाम छुऊँगा
उम्मीदों की सीडी से में आगे बढुँगा
गिरकर संभल तो कभी संभालकर गिरुँगा
सिकंदर बनकर मैं अपना मुक्कदर लिखूंगा
सच्चाई और ज्ञान का चश्मा पहने मैं राहगार बनूँगा
छुपे हुए कामयाबी के द्वार का मैं दरबान बनूँगा
वादा है तुझसे से, की जब तक मैं रहूँगा
चिप जा कही, में मौत से भी तुझे खीच लाऊँगा

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