13.5.06

बारिश की बूंदे

जब वोह छम से चेहरे को छूती है और कानो में कुछ गाती है ||
हलके से लबो-पर से सरक कर, अपने पेरों के निशान छोड जाती है
||
पुरी तरह हमे भिगों कर, हमे अपने ही रंग में वोह रंगती है ||
ये बात मैं सोचता हूँ की बारिश की बूंदे भी कुछ कहती है ||

जमीन पे खिची हुइ लकिरों को अपने प्यार से वोह मिलाती है
||
अपने ठंडे एहसास से सारे सोये हुए अन्कूरों को ये जगती है ||
आग में झुलसती हुइ धरती को मखमली हरी चादर ओढाती है ||
ये बात मैं सोचता हूँ की बारिश की बूंदे भी कुछ कहती है ||

हाथों में हाथ मिलाकर धरती को वोह आसमान से मिलाती है
||
खुद को ही कुर्बान कर वोह हमे जिन्दगी क्यों दे जाती है ||
अपनी ही बोली में नजाने कौनसा पाठ हमे पढा जाती है ||
ये बात मैं सोचता हूँ की बारिश की बूंदे भी कुछ कहती है ||

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